मूंगफली की बेहतर तकनीक से करें खेती, कीड़े और बीमारियां रहेंगी फसल से दूर
Mungfali Ki Kheti :किसान मानसून के सुरू होते ही मुगफली की बिजाइ में लग गए है, मुगफली एक तिलहन फसलों में आती है , भारत देश में बहुत सारे राज्यों में किसान की खेती करते है, मुगफली की खेती में कम खर्च अधिक मुनाफे होता हैं,
Mungfali Ki Kheti : मुगफली एक तिलहन फसलों में आती है, मुगफली की खेती थोड़े समय में पक कर तैयार हो जाती है, किसान आजकल कम खर्च अधिक मुनाफे वाली फसल की और ज्यादा बढ़ रहे हैं, भारत में काफी राज्यों में मूंगफली की खेती की जाती है, मूंगफली एक ऐसी फसल है जो कम खर्च और अधिक समय नहीं लेते हुए पक जाती है, मूंगफली की फसल को 2 से 3 बार पानी की जरूरत पड़ती है, 35 दिन बाद खरपतवार निकालना पड़ता है जरूरत के हिसाब दवाई का छिड़काव करें, अगर हम इसकी पैदावार की बात करें तो 10 से 12 क्विंटल प्रति एकड़ निकल सकती है.
यह होती है बंपर खेती
देश के कई राज्यों में मूंगफली की खेती की जाती है. जिनमें राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश,कर्नाटक व पश्चिम बंगाल में इसकी प्रमुख रूप से खेती की जाती है. मूंगफली की फसल के लिए खेतों में तीन से चार बार जुताई करें. इसके बाद मिट्टी को समतल करें और फिर समतलीकरण के बाद खेत में जरूरत के हिसाब से जैविक खाद, उर्वरक और पोषक तत्वों का भी प्रयोग करें. जिससे अच्छी उपज मिल सके. खेत तैयारी करने के बाद मूंगफली की बुवाई के बीजों को तैयार करना चाहिए. जिससे बीमारियां और कीड़े फसल में न पनप सकें. बुवाई के लिए उन्नत किस्मों और बीजों का उपयोग करें. इससे फसल बीमारी की संभावना कम होती है. बुवाई के लिए प्रति एकड़ 28 से 30 किलोग्राम बीज दर का इस्तेमाल करें.
कितने पानी की जरूरत
मूंगफली की फसल सिर्फ बारिश पर निर्भर करती है, इसलिए इसे पानी बचाने वाली फसल भी कहते हैं. ज्यादा बारिश होने से पहले खेत में जल निकासी का प्रबंध करें, ताकि पानी फसल में ना भर पाए. मूंगफली की फसल में पानी भरने से कीड़े और बीमारियां लगने की संभावना बढ़ जाती है. कम बारिश होने पर आवश्यकतानुसार सिंचाई बेहद जरूरी है.
जैविक खाद और दवाई का इस्तेमाल
मूंगफली की फसल में ज्यादा खरपतवार निकल आते हैं, जो पौधे की बढ़वार और उपज की गुणवत्ता को प्रभावित करता है. इसलिए, बुवाई के 15 दिन बाद और 35 दिन बाद खेतों में निराई-गुड़ाई करके खेत में उगने वाली घास को उखाड़े. फसल में कीटों और रोगों की निगरानी करते रहें. हर 15 दिन के अंतराल पर जरूरत के हिसाब से जैविक कीटनाशकों का प्रयोग करें.